गम इस बात का नहीं, कि मेरी कश्ती क्यूँ डुबोई |
गम इस बात का है , कि अपनों ने क्यूँ डुबोई ||
हम तो फिर भी जी लेते कश्ती बदल कर |
फिर मगर उस कम्बक्त ने अपनी क्यूँ डुबोई ||
गम इस बात का है , कि अपनों ने क्यूँ डुबोई ||
हम तो फिर भी जी लेते कश्ती बदल कर |
फिर मगर उस कम्बक्त ने अपनी क्यूँ डुबोई ||
Shekhar Kumawat :-
सुन्दर चिन्तन्।
जवाब देंहटाएंBahut khoob!
जवाब देंहटाएंsunder likha hai
जवाब देंहटाएंnice friend
जवाब देंहटाएंआपकी इस उत्कृष्ट प्रवि्ष्टी की चर्चा आज शुक्रवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
जवाब देंहटाएंयदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल उद्देश्य से दी जा रही है!
बहुत ही बढि़या ।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया -हम तो डूबेंगें सनम ,तुम्हें भी ले डूबेंगें .
जवाब देंहटाएंएक ग़ज़ल कुछ ऐसी हो ,बिलकुल तेरे जैसी हो ,
मेरा चाहें कुछ भी हो ,तेरी ऐसी तैसी हो .
यही फलसफा है आज ज़िन्दगी का .अपने ही दुबोतें हैं कश्तियाँ ओर ड़ोंगें.
waaah kya baat hai. aaj kal kahan nadarad hain janaab?
जवाब देंहटाएंjab dubote hai apne hi kashti ...jigar se chalne vaale ...usme bhi shayri dhoodh lete hain ....badhiya ...bahut dinoke baad likha ...
जवाब देंहटाएंlajawab
जवाब देंहटाएंवाह शेखर जी - गजब की प्रस्तुति
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